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मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

सफला एकादशी ( 21 /12/ 2012 )


सफला एकादशी



युधिष्ठिर ने पूछा : स्वामिन् ! पौष मास के कृष्णपक्ष (गुज.महाके लिए मार्गशीर्षमें जो एकादशी होती हैउसका क्या नाम हैउसकी क्या विधि है तथा उसमेंकिस देवता की पूजा की जाती है यह बताइये 

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजेन्द्र ! बड़ी बड़ी दक्षिणावाले यज्ञों से भी मुझे उतना संतोष नहीं होताजितना एकादशी व्रत के अनुष्ठान से होता है  पौष मास केकृष्णपक्ष में सफला’ नाम की एकादशी होती है  उस दिन विधिपूर्वक भगवान नारायण की पूजा करनी चाहिए  जैसे नागों में शेषनागपक्षियों में गरुड़ तथा देवताओंमें श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैंउसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतों में एकादशी तिथि श्रेष्ठ है 

राजन् ! सफला एकादशी’ को नाम मंत्रों का उच्चारण करके नारियल के फलसुपारीबिजौरा तथा जमीरा नींबूअनारसुन्दर आँवलालौंगबेर तथा विशेषतआम केफलों और धूप दीप से श्रीहरि का पूजन करे  सफला एकादशी’ को विशेष रुप से दीप दान करने का विधान है  रात को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए जागरण करनेवाले को जिस फल की प्राप्ति होती हैवह हजारों वर्ष तपस्या करने से भी नहीं मिलता 

नृपश्रेष्ठ ! अब सफला एकादशी’ की शुभकारिणी कथा सुनो  चम्पावती नाम से विख्यात एक पुरी हैजो कभी राजा माहिष्मत की राजधानी थी  राजर्षि माहिष्मत केपाँच पुत्र थे  उनमें जो ज्येष्ठ थावह सदा पापकर्म में ही लगा रहता था  परस्त्रीगामी और वेश्यासक्त था  उसने पिता के धन को पापकर्म में ही खर्च किया  वह सदादुराचारपरायण तथा वैष्णवों और देवताओं की निन्दा किया करता था  अपने पुत्र को ऐसा पापाचारी देखकर राजा माहिष्मत ने राजकुमारों में उसका नाम लुम्भक रखदिया। फिर पिता और भाईयों ने मिलकर उसे राज्य से बाहर निकाल दिया  लुम्भक गहन वन में चला गया  वहीं रहकर उसने प्रायसमूचे नगर का धन लूट लिया एक दिन जब वह रात में चोरी करने के लिए नगर में आया तो सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया  किन्तु जब उसने अपने को राजा माहिष्मत का पुत्र बतलाया तोसिपाहियों ने उसे छोड़ दिया  फिर वह वन में लौट आया और मांस तथा वृक्षों के फल खाकर जीवन निर्वाह करने लगा  उस दुष्ट का विश्राम स्थान पीपल वृक्ष बहुत वर्षोंपुराना था  उस वन में वह वृक्ष एक महान देवता माना जाता था  पापबुद्धि लुम्भक वहीं निवास करता था 

एक दिन किसी संचित पुण्य के प्रभाव से उसके द्वारा एकादशी के व्रत का पालन हो गया  पौष मास में कृष्णपक्ष की दशमी के दिन पापिष्ठ लुम्भक ने वृक्षों के फल खायेऔर वस्त्रहीन होने के कारण रातभर जाड़े का कष्ट भोगा  उस समय  तो उसे नींद आयी और  आराम ही मिला  वह निष्प्राण सा हो रहा था  सूर्योदय होने पर भीउसको होश नहीं आया  सफला एकादशी’ के दिन भी लुम्भक बेहोश पड़ा रहा  दोपहर होने पर उसे चेतना प्राप्त हुई  फिर इधर उधर दृष्टि डालकर वह आसन से उठाऔर लँगड़े की भाँति लड़खड़ाता हुआ वन के भीतर गया  वह भूख से दुर्बल और पीड़ित हो रहा था  राजन् ! लुम्भक बहुत से फल लेकर जब तक विश्राम स्थल परलौटातब तक सूर्यदेव अस्त हो गये  तब उसने उस पीपल वृक्ष की जड़ में बहुत से फल निवेदन करते हुए कहाइन फलों से लक्ष्मीपति भगवान विष्णु संतुष्ट हों ’ योंकहकर लुम्भक ने रातभर नींद नहीं ली  इस प्रकार अनायास ही उसने इस व्रत का पालन कर लिया  उस समय सहसा आकाशवाणी हुईराजकुमार ! तुम सफलाएकादशी’ के प्रसाद से राज्य और पुत्र प्राप्त करोगे ’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसने वह वरदान स्वीकार किया  इसके बाद उसका रुप दिव्य हो गया  तबसे उसकी उत्तमबुद्धि भगवान विष्णु के भजन में लग गयी  दिव्य आभूषणों से सुशोभित होकर उसने निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया और पंद्रह वर्षों तक वह उसका संचालन करता रहा उसको मनोज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ  जब वह बड़ा हुआतब लुम्भक ने तुरंत ही राज्य की ममता छोड़कर उसे पुत्र को सौंप दिया और वह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण केसमीप चला गयाजहाँ जाकर मनुष्य कभी शोक में नहीं पड़ता 


राजन् ! इस प्रकार जो सफला एकादशी’ का उत्तम व्रत करता हैवह इस लोक में सुख भोगकर मरने के पश्चात् मोक्ष को प्राप्त होता है  संसार में वे मनुष्य धन्य हैंजोसफला एकादशी’ के व्रत में लगे रहते हैंउन्हीं का जन्म सफल है  महाराजइसकी महिमा को पढ़नेसुनने तथा उसके अनुसार आचरण करने से मनुष्य राजसूययज्ञ का फल पाता है 


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रविवार, 20 नवंबर 2011

उत्पत्ति एकादशी (on 21st november 2011)


उत्पत्ति एकादशी


उत्पत्ति एकादशी का व्रत हेमन्त ॠतु में मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष
 ( गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार कार्तिक ) को करना चाहिए  इसकी कथा इस प्रकार है :


युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा : भगवन् ! पुण्यमयी एकादशी तिथि कैसे उत्पन्न हुई
इस संसार में वह क्यों पवित्र मानी गयी तथा देवताओं को कैसे प्रिय हुई?


श्रीभगवान बोले : कुन्तीनन्दन ! प्राचीन समय की बात है 

 सत्ययुग में मुर नामक दानव रहता था 

 वह बड़ा ही अदभुतअत्यन्त रौद्र तथा सम्पूर्ण देवताओं के लिएभयंकर था  
उस कालरुपधारी दुरात्मा महासुर ने इन्द्र को भी जीत लिया था  

सम्पूर्ण देवता उससे परास्त होकर स्वर्ग से निकाले जा चुके थे
 और शंकित तथा भयभीतहोकर पृथ्वी पर विचरा करते थे 

 एक दिन सब देवता महादेवजी के पास गये  
वहाँ इन्द्र ने भगवान शिव के आगे सारा हाल कह सुनाया 


इन्द्र बोले : महेश्वर ! ये देवता स्वर्गलोक से निकाले जाने के बाद पृथ्वी पर विचर रहे हैं 
 मनुष्यों के बीच रहना इन्हें शोभा नहीं देता  देव ! कोई उपाय बतलाइये देवता किसका सहारा लें ?


महादेवजी ने कहा : देवराज ! जहाँ सबको शरण देनेवालेसबकी रक्षा में तत्पर रहने वाले जगत के स्वामी भगवान गरुड़ध्वज विराजमान हैंवहाँ जाओ  वे तुमलोगों की रक्षा करेंगे 


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! 
महादेवजी की यह बात सुनकर परम बुद्धिमान देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं के साथ क्षीरसागर में गये
 जहाँ भगवानगदाधर सो रहे थे  इन्द्र ने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की 


इन्द्र बोले : देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है ! देव ! आप ही पतिआप ही मतिआप ही कर्त्ता और आप ही कारण हैं  आप ही सब लोगों की माता और आप ही इसजगत के पिता हैं 

देवता और दानव दोनों ही आपकी वन्दना करते हैं  पुण्डरीकाक्ष ! 

आप दैत्यों के शत्रु हैं  मधुसूदन ! हम लोगों की रक्षा कीजिये  प्रभो ! जगन्नाथ !

अत्यन्त उग्र स्वभाववाले महाबली मुर नामक दैत्य ने इन सम्पूर्ण देवताओं को जीतकर स्वर्ग से बाहर निकाल दिया है  भगवन् ! देवदेवेश्वर ! शरणागतवत्सल !देवता भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं  

दानवों का विनाश करनेवाले कमलनयन ! भक्तवत्सल ! देवदेवेश्वर ! जनार्दन ! हमारी रक्षा कीजिये… रक्षा कीजिये भगवन् ! शरण में आये हुए देवताओं की सहायता कीजिये 


इन्द्र की बात सुनकर भगवान विष्णु बोले : देवराज ! यह दानव कैसा है 
उसका रुप और बल कैसा है तथा उस दुष्ट के रहने का स्थान कहाँ है ?


इन्द्र बोले: देवेश्वर ! पूर्वकाल में ब्रह्माजी के वंश में तालजंघ नामक एक महान असुर उत्पन्न हुआ था,
 जो अत्यन्त भयंकर था  उसका पुत्र मुर दानव के नाम सेविख्यात है  

वह भी अत्यन्त उत्कटमहापराक्रमी और देवताओं के लिए भयंकर है 
 चन्द्रावती नाम से प्रसिद्ध एक नगरी हैउसी में स्थान बनाकर वह निवास करता है 

उस दैत्य ने समस्त देवताओं को परास्त करके उन्हें स्वर्गलोक से बाहर कर दिया है  
उसने एक दूसरे ही इन्द्र को स्वर्ग के सिंहासन पर बैठाया है 


 अग्निचन्द्रमा,सूर्यवायु तथा वरुण भी उसने दूसरे ही बनाये हैं  जनार्दन ! मैं सच्ची बात बता रहा हूँ  
उसने सब कोई दूसरे ही कर लिये हैं  देवताओं को तो उसने उनके प्रत्येकस्थान से वंचित कर दिया है 

इन्द्र की यह बात सुनकर भगवान जनार्दन को बड़ा क्रोध आया  
उन्होंने देवताओं को साथ लेकर चन्द्रावती नगरी में प्रवेश किया  

भगवान गदाधर ने देखा किदैत्यराज बारंबार गर्जना कर रहा है 
और उससे परास्त होकर सम्पूर्ण देवता दसों दिशाओं में भाग रहे हैं 

 अब वह दानव भगवान विष्णु को देखकर बोला : खड़ा रह खड़ा रह 
 उसकी यह ललकार सुनकर भगवान के नेत्र क्रोध से लाल हो गये  वे बोले : ‘ अरे दुराचारी दानव ! 
मेरी इन भुजाओं को देख 

 यह कहकर श्रीविष्णु ने अपनेदिव्य बाणों से सामने आये हुए दुष्ट दानवों को मारना आरम्भ किया 
 दानव भय से विह्लल हो उठे  पाण्ड्डनन्दन ! तत्पश्चात् श्रीविष्णु ने दैत्य सेना पर चक्र का प्रहारकिया 

 उससे छिन्न भिन्न होकर सैकड़ो योद्धा मौत के मुख में चले गये 

इसके बाद भगवान मधुसूदन बदरिकाश्रम को चले गये  
वहाँ सिंहावती नाम की गुफा थीजो बारह योजन लम्बी थी  पाण्ड्डनन्दन ! उस गुफा में एक ही दरवाजा था 

भगवान विष्णु उसीमें सो गये 

 वह दानव मुर भगवान को मार डालने के उद्योग में उनके पीछे पीछे तो लगा ही था  
अतउसने भी उसी गुफा में प्रवेश किया  वहाँभगवान को सोते देख उसे बड़ा हर्ष हुआ 

 उसने सोचा : यह दानवों को भय देनेवाला देवता है 
 अतनि:सन्देह इसे मार डालूँगा 

’ युधिष्ठिर ! दानव के इस प्रकार विचारकरते ही भगवान विष्णु के शरीर से एक कन्या प्रकट हुई
जो बड़ी ही रुपवतीसौभाग्यशालिनी तथा दिव्य अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित थी  

वह भगवान के तेज के अंश सेउत्पन्न हुई थी  उसका बल और पराक्रम महान था  

युधिष्ठिर ! दानवराज मुर ने उस कन्या को देखा  
कन्या ने युद्ध का विचार करके दानव के साथ युद्ध के लिए याचना की  युद्ध छिड़ गया  

कन्या सब प्रकार की युद्धकला में निपुण थी  
वह मुर नामक महान असुर उसके हुंकारमात्र से राख का ढेर हो गया  
दानव के मारे जानेपर भगवान जाग उठे 


 उन्होंने दानव को धरती पर इस प्रकार निष्प्राण पड़ा देखकर कन्या से पूछा :
 मेरा यह शत्रु अत्यन्त उग्र और भयंकर था  किसने इसका वधकिया है ?’


कन्या बोली: स्वामिन् ! आपके ही प्रसाद से मैंने इस महादैत्य का वध किया है।


श्रीभगवान ने कहा : कल्याणी ! तुम्हारे इस कर्म से तीनों लोकों के मुनि और देवता आनन्दित हुए हैं।
 अततुम्हारे मन में जैसी इच्छा होउसके अनुसार मुझसेकोई वर माँग लो  
देवदुर्लभ होने पर भी वह वर मैं तुम्हें दूँगाइसमें तनिक भी संदेह नहीं है 



वह कन्या साक्षात् एकादशी ही थी।

उसने कहाप्रभो ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मैं आपकी कृपा से सब तीर्थों में प्रधानसमस्त विघ्नों का नाश करने वाली तथा सब प्रकार की सिद्धि देनेवाली देवी होऊँ 

जनार्दन ! जो लोग आपमें भक्ति रखते हुए मेरे दिन को उपवास करेंगे
उन्हें सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त हो  माधव ! जो लोग उपवासनक्त भोजन अथवा एक भुक्त करके मेरे व्रत का पालन करेंउन्हें आप धनधर्म और मोक्ष प्रदान कीजिये 


श्रीविष्णु बोले: कल्याणी ! तुम जो कुछ कहती होवह सब पूर्ण होगा 

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! ऐसा वर पाकर महाव्रता एकादशी बहुत प्रसन्न हुई 
 दोनों पक्षों की एकादशी समान रुप से कल्याण करने वाली है  

इसमेंशुक्ल और कृष्ण का भेद नहीं करना चाहिए  

यदि उदयकाल में थोड़ी सी एकादशीमध्य में पूरी द्वादशी और अन्त में किंचित् त्रयोदशी हो तो वह त्रिस्पृशा एकादशीकहलाती है  

वह भगवान को बहुत ही प्रिय है  

यदि एक त्रिस्पृशा एकादशी’ को उपवास कर लिया जाय तो एक हजार एकादशी व्रतों का फल प्राप्त होता है 

था इसी प्रकार द्वादशी में पारण करने पर हजार गुना फल माना गया है  

अष्टमीएकादशीषष्ठीतृतीय और चतुर्दशी - ये यदि पूर्वतिथि से विद्ध हों तो उनमें व्रत नहीं करना चाहिए  

परवर्तिनी तिथि से युक्त होने पर ही इनमें उपवास का विधान है 

 पहले दिन में और रात में भी एकादशी हो तथा दूसरे दिन केवल प्रातकाल एकदण्ड एकादशी रहे तो पहली तिथि का परित्याग करके दूसरे दिन की द्वादशीयुक्त एकादशी को ही उपवास करना चाहिए  

यह विधि मैंने दोनों पक्षों की एकादशी के लिए बतायी है 

जो मनुष्य एकादशी को उपवास करता हैवह वैकुण्ठधाम में जाता है
जहाँ साक्षात् भगवान गरुड़ध्वज विराजमान रहते हैं  

जो मानव हर समय एकादशी के माहात्मयका पाठ करता है
उसे हजार गौदान के पुण्य का फल प्राप्त होता है  

जो दिन या रात में भक्तिपूर्वक इस माहात्म्य का श्रवण करते हैं

वे नि:संदेह ब्रह्महत्या आदि पापों सेमुक्त हो जाते हैं  एकादशी के समान पापनाशक व्रत दूसरा कोई नहीं है 

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