bapu


Click here for Myspace Layouts

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

उत्पत्ति एकादशी (02/12/2010)(वैकुण्ठधाम जाने के लिए )

उत्पत्ति एकादशी का व्रत हेमन्त ॠतु में मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष
( गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार कार्तिक ) को करना चाहिए ।


इसकी कथा इस प्रकार है  



युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा : भगवन् ! पुण्यमयी एकादशी तिथि कैसे उत्पन्न हुई?
इस संसार में वह क्यों पवित्र मानी गयी तथा देवताओं को कैसे प्रिय हुई?

श्रीभगवान बोले : कुन्तीनन्दन ! प्राचीन समय की बात है । सत्ययुग में मुर नामक दानव रहता था ।
 वह बड़ा ही अदभुत, अत्यन्त रौद्र तथा सम्पूर्ण देवताओं के लिए भयंकर था ।
 उस कालरुपधारी दुरात्मा महासुर ने इन्द्र को भी जीत लिया था ।

 सम्पूर्ण देवता उससे परास्त होकर स्वर्ग से निकाले जा चुके थे और शंकित तथा भयभीत होकर पृथ्वी पर विचरा करते थे । एक दिन सब देवता महादेवजी के पास गये । वहाँ इन्द्र ने भगवान शिव के आगे सारा हाल कह सुनाया ।


इन्द्र बोले : महेश्वर ! ये देवता स्वर्गलोक से निकाले जाने के बाद पृथ्वी पर विचर रहे हैं । मनुष्यों के बीच रहना इन्हें शोभा नहीं देता । देव ! कोई उपाय बतलाइये । देवता किसका सहारा लें ?


महादेवजी ने कहा : देवराज ! जहाँ सबको शरण देनेवाले, सबकी रक्षा में तत्पर रहने वाले जगत के स्वामी भगवान गरुड़ध्वज विराजमान हैं, वहाँ जाओ । वे तुम लोगों की रक्षा करेंगे ।


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! महादेवजी की यह बात सुनकर परम बुद्धिमान देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं के साथ क्षीरसागर में गये जहाँ भगवान गदाधर सो रहे थे । इन्द्र ने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की ।


इन्द्र बोले : देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है ! देव !


आप ही पति, आप ही मति, आप ही कर्त्ता और आप ही कारण हैं । आप ही सब लोगों की माता और आप ही इस जगत के पिता हैं ।


 देवता और दानव दोनों ही आपकी वन्दना करते हैं ।
 पुण्डरीकाक्ष ! आप दैत्यों के शत्रु हैं । मधुसूदन ! हम लोगों की रक्षा कीजिये ।

प्रभो ! जगन्नाथ ! अत्यन्त उग्र स्वभाववाले महाबली मुर नामक दैत्य ने इन सम्पूर्ण देवताओं को जीतकर स्वर्ग से बाहर निकाल दिया है । भगवन् ! देवदेवेश्वर ! शरणागतवत्सल !

देवता भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं । दानवों का विनाश करनेवाले कमलनयन ! भक्तवत्सल ! देवदेवेश्वर ! जनार्दन ! हमारी रक्षा कीजिये… रक्षा कीजिये । भगवन् ! शरण में आये हुए देवताओं की सहायता कीजिये ।

इन्द्र की बात सुनकर भगवान विष्णु बोले : देवराज ! यह दानव कैसा है ? उसका रुप और बल कैसा है तथा उस दुष्ट के रहने का स्थान कहाँ है ?



इन्द्र बोले: देवेश्वर ! पूर्वकाल में ब्रह्माजी के वंश में तालजंघ नामक एक महान असुर उत्पन्न हुआ था, जो अत्यन्त भयंकर था । उसका पुत्र मुर दानव के नाम से विख्यात है ।

वह भी अत्यन्त उत्कट, महापराक्रमी और देवताओं के लिए भयंकर है । चन्द्रावती नाम से प्रसिद्ध एक नगरी है, उसीमें स्थान बनाकर वह निवास करता है ।

 उस दैत्य ने समस्त देवताओं को परास्त करके उन्हें स्वर्गलोक से बाहर कर दिया है ।
 उसने एक दूसरे ही इन्द्र को स्वर्ग के सिंहासन पर बैठाया है ।
अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, वायु तथा वरुण भी उसने दूसरे ही बनाये हैं ।

जनार्दन ! मैं सच्ची बात बता रहा हूँ । उसने सब कोई दूसरे ही कर लिये हैं ।
 देवताओं को तो उसने उनके प्रत्येक स्थान से वंचित कर दिया है ।


इन्द्र की यह बात सुनकर भगवान जनार्दन को बड़ा क्रोध आया ।
उन्होंने देवताओं को साथ लेकर चन्द्रावती नगरी में प्रवेश किया ।
भगवान गदाधर ने देखा कि “दैत्यराज बारंबार गर्जना कर रहा है
और उससे परास्त होकर सम्पूर्ण देवता दसों दिशाओं में भाग रहे हैं ।


’ अब वह दानव भगवान विष्णु को देखकर बोला : ‘खड़ा रह … खड़ा रह ।’
 उसकी यह ललकार सुनकर भगवान के नेत्र क्रोध से लाल हो गये ।


 वे बोले : ‘ अरे दुराचारी दानव ! मेरी इन भुजाओं को देख ।’
 यह कहकर श्रीविष्णु ने अपने दिव्य बाणों से सामने आये हुए दुष्ट दानवों को मारना आरम्भ किया


दानव भय से विह्लल हो उठे । पाण्ड्डनन्दन ! तत्पश्चात्
श्रीविष्णु ने दैत्य सेना पर चक्र का प्रहार किया ।
उससे छिन्न भिन्न होकर सैकड़ो योद्धा मौत के मुख में चले गये ।



इसके बाद भगवान मधुसूदन बदरिकाश्रम को चले गये ।
 वहाँ सिंहावती नाम की गुफा थी, जो बारह योजन लम्बी थी ।

 पाण्ड्डनन्दन ! उस गुफा में एक ही दरवाजा था । भगवान विष्णु उसीमें सो गये ।
 वह दानव मुर भगवान को मार डालने के उद्योग में उनके पीछे पीछे तो लगा ही था ।



 अत: उसने भी उसी गुफा में प्रवेश किया । वहाँ भगवान को सोते देख उसे बड़ा हर्ष हुआ ।
 उसने सोचा : ‘यह दानवों को भय देनेवाला देवता है । अत: नि:सन्देह इसे मार डालूँगा ।



’ युधिष्ठिर ! दानव के इस प्रकार विचार करते ही भगवान विष्णु के शरीर से एक कन्या प्रकट हुई, जो बड़ी ही रुपवती, सौभाग्यशालिनी तथा दिव्य अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित थी ।

 वह भगवान के तेज के अंश से उत्पन्न हुई थी । उसका बल और पराक्रम महान था ।
युधिष्ठिर ! दानवराज मुर ने उस कन्या को देखा ।
कन्या ने युद्ध का विचार करके दानव के साथ युद्ध के लिए याचना की ।



युद्ध छिड़ गया । कन्या सब प्रकार की युद्धकला में निपुण थी ।
 वह मुर नामक महान असुर उसके हुंकारमात्र से राख का ढेर हो गया ।
 दानव के मारे जाने पर भगवान जाग उठे ।



उन्होंने दानव को धरती पर इस प्रकार निष्प्राण पड़ा देखकर कन्या से पूछा :
 ‘मेरा यह शत्रु अत्यन्त उग्र और भयंकर था । किसने इसका वध किया है ?’




कन्या बोली: स्वामिन् ! आपके ही प्रसाद से मैंने इस महादैत्य का वध किया है

श्रीभगवान ने कहा : कल्याणी ! तुम्हारे इस कर्म से तीनों लोकों के मुनि और देवता आनन्दित हुए हैं। अत: तुम्हारे मन में जैसी इच्छा हो, उसके अनुसार मुझसे कोई वर माँग लो । देवदुर्लभ होने पर भी वह वर मैं तुम्हें दूँगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ।





वह कन्या साक्षात् एकादशी ही थी।
उसने कहा: ‘प्रभो ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मैं आपकी कृपा से सब तीर्थों में प्रधान,
समस्त विघ्नों का नाश करनेवाली तथा सब प्रकार की सिद्धि देनेवाली देवी होऊँ ।
जनार्दन ! जो लोग आपमें भक्ति रखते हुए मेरे दिन को उपवास करेंगे,



उन्हें सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त हो । माधव !
जो लोग उपवास, नक्त भोजन अथवा एकभुक्त करके मेरे व्रत का पालन करें,
 उन्हें आप धन, धर्म और मोक्ष प्रदान कीजिये ।’

श्रीविष्णु बोले: कल्याणी ! तुम जो कुछ कहती हो, वह सब पूर्ण होगा ।




भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! ऐसा वर पाकर महाव्रता एकादशी बहुत प्रसन्न हुई ।
दोनों पक्षों की एकादशी समान रुप से कल्याण करनेवाली है ।
 इसमें शुक्ल और कृष्ण का भेद नहीं करना चाहिए ।


यदि उदयकाल में थोड़ी सी एकादशी, मध्य में पूरी द्वादशी और अन्त में किंचित् त्रयोदशी हो
 तो वह ‘त्रिस्पृशा एकादशी’ कहलाती है । वह भगवान को बहुत ही प्रिय है ।


यदि एक ‘त्रिस्पृशा एकादशी’ को उपवास कर लिया जाय तो एक हजार एकादशी व्रतों का फल प्राप्त होता है तथा इसी प्रकार द्वादशी में पारण करने पर हजार गुना फल माना गया है ।

अष्टमी, एकादशी, षष्ठी, तृतीय और चतुर्दशी - ये यदि पूर्वतिथि से विद्ध हों तो
 उनमें व्रत नहीं करना चाहिए । परवर्तिनी तिथि से युक्त होने पर ही इनमें उपवास का विधान है ।


 पहले दिन में और रात में भी एकादशी हो तथा दूसरे दिन केवल प्रात: काल एकदण्ड एकादशी रहे तो पहली तिथि का परित्याग करके दूसरे दिन की द्वादशीयुक्त एकादशी को ही
 उपवास करना चाहिए । यह विधि मैंने दोनों पक्षों की एकादशी के लिए बतायी है ।




जो मनुष्य एकादशी को उपवास करता है, वह वैकुण्ठधाम में जाता है,
जहाँ साक्षात् भगवान गरुड़ध्वज विराजमान रहते हैं ।

जो मानव हर समय एकादशी के माहात्मय का पाठ करता है,



उसे हजार गौदान के पुण्य का फल प्राप्त होता है ।
जो दिन या रात में भक्तिपूर्वक इस माहात्म्य का श्रवण करते हैं,
वे नि:संदेह ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्त हो जाते हैं । एकादशी के समान पापनाशक व्रत दूसरा कोई नहीं है ।

बुधवार, 24 नवंबर 2010

कुप्रचार वालो को धन्यवाद है ......

जो कभी ना छूटे उस का आश्रय ले लो तो काम बन जाएगा..!!
आश्रय भगवान का लेना…आश्रय पैसे का लिया तो इनकम टैक्स का प्रॉब्लम आएगा !

प्रीति भगवान से करो..प्रीति शरीर के सुख लेने को किया तो वो शरीर स्वास्थ्य का प्रॉब्लम देगी…

कुटुंब के ३ भोग होते : संपदा , सुख और स्वास्थ्य
लेकिन संसारी मनुष्य तीनो को साथ में नही भोग सकता …

कभी पैसे नही तो कभी स्वास्थ्य नही तो कभी पारिवारिक सुखशांति की गडबड रहेगी..

कही ना कही गडबड रहेगी..

और तीनो में गडबड नही तो भाग्य तो है लेकिन समय बरबाद हो गया !!:-)

जीवन में गडबड नही तो विकास कहाँ से हो?


इसलिए कुप्रचार वालो को धन्यवाद है ..

मेरे साधक और भी पक्के हो गए!!

 मैं भी बापू का बाप लगू …ऐ हाई…:-)

सब धर्मो में परम धाम है “मैं” का ज्ञान पा लेना…

शरीर तुम रख नही सकते और “मैं” को तुम छोड़ नही सकते…



 मैं हाथ जोड़ के प्रार्थना करता हूँ कि,

आप का उद्देश और आश्रय भगवान को पाने का बना लो तो भगवान का सुख ,

 भगवान का प्रकाश , भगवान का ज्ञान आप को मिलेगा

और आप इतने महान बन जाओगे… बिल्कुल पक्की बात है..!

हरिओम

देखा इतने महान है हमारे बापूजी .....कुपर्चार वालो को भी धन्यवाद् देते है

उनको भी माफ़ कर दिया बापू ने......

वाह मेरे बापू....

तेरी लीला निराली......
जय हो.....

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

किताबों से रटकर जो कही जाये, वो 'प्राथना' नहीं,

होंठ हों खामोश और आँखें बहती रहें ।




'प्रार्थना' है वाही सही, जो मेरे 'बापू'' को अच्छी लगे ।



'प्रार्थना' शब्दों का जाल नहीं, ह्रदय का उदगार है ।



अपने प्रभु को मनाने का अपना-अपना अंदाज है ।



आँखें कभी थके नहीं, प्रभु के दीदार से।



साँसें जब तक रुके नहीं, होती रहे बातें तब तक प्यार से ।



हम उन्हें देखते रहें,और उनके चरणों को अश्रु से धोते रहें ।



कुछ कहने को होंठ खुले नहीं,



पर उनको सुनाने में बके न कुछ कभी रहें ।



जहाँ रहें जैसे रहें, उनके पास होने का आभास रहें ।



किताबों से रटकर जो कही जाये, वो 'प्राथना' नहीं,



उक्त भावों को संजोने को हम 'प्राथना' कहें।

माँ-बाप का आदर क्यों करना चहिये ????

स्वामी विवेकानंद बेठे थे ...



एक लड़का आया....बोला माँ-बाप का आदर क्यों करना चहिये ????

स्वामी विवेकानंद बोले एक डेड किलो का पत्थर लेके आ ....



वो लड़का पत्थर लेके आया.......

स्वामी विवेकानंद जी ने वो पत्थर उस लड़के के पेट पे बाँध दिया ...और कहा १० घंटे बाद आना

मैं तुम्हारे प्रशन का जवाब दूंगा .....



अब वो लड़का १ घंटा भी नही रुक पाया ....परेशान परेशान हो गया...

वो लड़का वापिस स्वामी जी के पास आया और बोला मुझसे नही राह जाता ये पत्थर खोलो मुझे तकलीफ हो रही है ...

स्वामी जी ने खुलवा दिया पत्थर....



फिर लड़का बोला मेरे सवाल का जवाब दो.....

तब स्वामी जी बोले ...यही तो जवाब था....

जब तू १ घंटा भी डेड किलो के पत्थर को नही सँभाल सकता तो सोच माँ ने केसे तुझे ९ महीने पेट में रखा होगा ...

तुम तो १ घंटा भी पत्थर नही रख सके ...

सोचो उसका क्या हाल हुआ होगा .....

जिस माँ ने तुम्हे ९ महीने इतनी तकलीफ से संभाला ....

उस माँ का आदर नही करोगे तो क्या किसी हिरोइन का आदर करोगे ...



भूलो सभी को मगर तुम माँ-बाप को भूलना नही ...

उपकार है उनके अनगिनत इस बात को कभी भूलना नही ....



धन खर्चने से मिलेगा सब पर माँ-बाप मिलते नही...

भूलो सभी को मगर तुम माँ-बाप को भूलना नही ...



समजने वाले समाज गए होंगे की माँ बाप का आदर क्यों करना चहिये....

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

जहा जायेंगे मधुरता आ जायेगी…...

श्रीकृष्ण बोलते,


“मेरी शरण आ जाओ”


कृष्ण “मेरी” अर्थात जहा से “मैं” स्फुरित होता वहा आ जाओ कहेते !

सर्व भाव से जो कुछ करते भगवान के लिए करो…

हमें तो भगवत सुख, भगवत ज्ञान, भगवत प्रकाश चाहिए….

भगवान से मुलाक़ात चाहिए…

इस भाव से जो भी करेंगे तो आप का धन कमाना,

रोना, हँसना , गाना , नाचना भी बंदगी हो जाएगा…





कर्म करते उस का फल अहम् पोसने के लिए करते तो
कर्म का आश्रय उदेश्य तुच्छ हो जाता है.
मैं बोलता तो फल वाहवाही नही,
सुनने वाले का हीत हो तो कर्म हमारा होता,
लेकिन आप का हीत सोच के बोलता हूँ अपना काम करता हूँ
भगवत भक्ति का, हीत तुम्हारा है..
तो मैं भी राजी , आप भी राजी है !!


आप को भी लाभ! मेरा उद्देश भी पुरा होता…

फिर भी कुछ लोग चिंता करते की क्या करे?अरे !!



"मुर्दे को प्रभु देत है कपडा लत्ता आग l"

"जिन्दा नर चिंता करे उस के बड़े अभाग" ll



जो सब से जरुरी है हवा, पानी वो तो भगवान से मोफत में मिलता है ,
 तो भगवान तुम को भूका रखेगा?


हम तो कितनी बार जो भी मिलाता फ़ेंक देते नदी में….
फिर भी भगवान कहा से ले आते..!!
जिस की गरज होगी आएगा सृष्टि करता ख़ुद लायेगा !!



हमारी मोहबत का कुछ और ही अंदाज है l
उन को हम पर नाज है तो हम को भी उन पर नाज है ना !..



आप पक्का कर लो की जो भी करेंगे :
आश्रय और उद्देश्य भगवान का हो !!


हमारा आश्रय भगवान के लिए होगा तो जो भी सत्कर्म करेंगे
भगवान को प्राप्त होंगे…तो भगवान का सुख,
भगवान का ज्ञान जरुर प्रगट होगा…

खाना बनाते तो कर्तव्य से रोटी बनाते ऐसा नही ,
खानेवाले का स्वास्थ्य अच्छा रहे ये उद्देश्य हो ..
कर्त्यव्य वश करू ऐसा नही …



कपडे पहेनते तो पति / पत्नी को भोगी बनाऊ तो आश्रय काम है
 तो रोग शोक आयेंगे….बिल्कुल सीधी बात है …

हिंदू धरम में “धरम पत्नी” बोलते ,
कितनी महान संस्कृति है!
कन्या का विवाह करते तो पिता ये सोच के करते की
कन्या लक्ष्मी रूपा वर नारायण रूपा !!
 ऐसे कर के शादी कराई जाती…

तो आश्रय और उद्देश कितना महान है …ऐ है ..

एकदम नई टोपिक है बाबा …:-)



ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ......
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ........
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय .......


आप लोग पहेले की अपेक्षा मुझे ज्यादा हसते खेलते देखते होंगे…
.(कुप्रचार के आंधी तूफान से) तो मेरी प्रसन्नता और बढ़ गई !! .
.आप को लगता की नही लगता?…सच बताओ…

आनंद के लिए वाइन पिने की जरुरत नही,
पत्नी के हाडमांस को नोचने की जरुरत नही….
स्वास्थ्य के लिए टोनिक की जरुरत नही…
दुनिया के विषय विकारों के जरुरत नही…



जहा जायेंगे मधुरता आ जायेगी…!

मधुर मधुर नाम हरी हरी ॐ (मधुर कीर्तन हो रहा है)
हसते खेलते खाते पहेनते मुक्ति का अनुभव कराये वो सदगुरू भावे..:-)

गोरखनाथ बोलते,

हसिबो खेलिबो धरिबो ध्यान

अहर्निश कथिबो ब्रम्हज्ञान l
खाए पिए न करे मन भंगा

कहो नाथ मैं तिस के संगा ..ll


हरी ॐ.......

satsang...
Sept. 14th  2008Delhi


मंगलवार, 16 नवंबर 2010

प्रबोधिनी एकादशी is tomorrow (Devuthi Ekadashi) (17th Nov'10)


भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : हे अर्जुन ! मैं तुम्हें मुक्ति देनेवाली कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की

‘प्रबोधिनी एकादशी’ के सम्बन्ध में नारद और ब्रह्माजी के बीच हुए वार्तालाप को सुनाता हूँ ।

एक बार नारादजी ने ब्रह्माजी से पूछा : ‘हे पिता ! ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत का क्या फल होता है,

आप कृपा करके मुझे यह सब विस्तारपूर्वक बतायें ।’


ब्रह्माजी बोले : हे पुत्र!जिस वस्तु का त्रिलोक में मिलना दुष्कर है, वह वस्तु भी कार्तिक मास के

शुक्लपक्ष की‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत से मिल जाती है ।

इस व्रत के प्रभाव से पूर्व जन्म के किये हुए अनेक बुरे कर्म क्षणभर में नष्ट हो जाते है ।

हे पुत्र ! जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस दिन थोड़ा भी पुण्य करते हैं,



उनका वह पुण्य पर्वत के समान अटल हो जाता है । उनके पितृ विष्णुलोक में जाते हैं ।

ब्रह्महत्या आदि महान पाप भी ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन रात्रि को जागरण करने से नष्ट हो जाते हैं ।

हे नारद ! मनुष्य को भगवान की प्रसन्नता के लिए कार्तिक मास की इस एकादशी का व्रत

अवश्य करना चाहिए । जो मनुष्य इस एकादशी व्रत को करता है,




वह धनवान, योगी, तपस्वी तथा इन्द्रियों को जीतनेवाला होता है,

क्योंकि एकादशी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है ।

इस एकादशी के दिन जो मनुष्य भगवान की प्राप्ति के लिए दान, तप, होम, यज्ञ

(भगवान्नामजप भी परम यज्ञ है। ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ ।


यज्ञों में जपयज्ञ मेरा ही स्वरुप है।’ - श्रीमद्भगवदगीता ) आदि करते हैं,

उन्हें अक्षय पुण्य मिलता है ।

इसलिए हे नारद ! तुमको भी विधिपूर्वक विष्णु भगवान की पूजा करनी चाहिए ।

इस एकादशी के दिन मनुष्य को ब्रह्ममुहूर्त में उठकर व्रत का संकल्प लेना चाहिए

और पूजा करनी चाहिए ।



रात्रि को भगवान के समीप गीत, नृत्य, कथा-कीर्तन करते हुए रात्रि व्यतीत करनी चाहिए ।

‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन पुष्प, अगर, धूप आदि से भगवान की आराधना करनी चाहिए,

भगवान को अर्ध्य देना चाहिए ।



इसका फल तीर्थ और दान आदि से करोड़ गुना अधिक होता है ।

जो गुलाब के पुष्प से, बकुल और अशोक के फूलों से, सफेद और लाल कनेर के फूलों से,

दूर्वादल से, शमीपत्र से, चम्पकपुष्प से भगवान विष्णु की पूजा करते हैं,

वे आवागमन के चक्र से छूट जाते हैं ।



इस प्रकार रात्रि में भगवान की पूजा करके प्रात:काल स्नान के पश्चात् भगवान की प्रार्थना करते

हुए गुरु की पूजा करनी चाहिए और सदाचारी व पवित्र ब्राह्मणों को दक्षिणा

देकर अपने व्रत को छोड़ना चाहिए ।



जो मनुष्य चातुर्मास्य व्रत में किसी वस्तु को त्याग देते हैं, उन्हें इस दिन से पुनः ग्रहण करनी

चाहिए । जो मनुष्य ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन विधिपूर्वक व्रत करते हैं,

उन्हें अनन्त सुख मिलता है और अंत में स्वर्ग को जाते हैं ।

बुधवार, 3 नवंबर 2010

दीपावली और नूतन वर्ष की खूब-खूब शुभकामनाएँ…



अज्ञानरूपी अंधकार पर ज्ञानरूपी प्रकाश की विजय का संदेश देता है –

जगमगाते दीपों का उत्सव ‘दीपावली।‘



भारतीय संस्कृति के इस प्रकाशमय पर्व की आप सभी को खूब-खूब शुभकामनाएँ…




आप सभी का जीवन ज्ञानरूपी प्रकाश से जगमगाता रहे…


दीपावली और नूतन वर्ष की यही शुभकामनाएँ…




दीपावली का दूसरा दिन अर्थात् नूतन वर्ष का प्रथम दिन..
जो वर्ष के प्रथम दिन हर्ष,दैन्य आदि जिस भाव में रहता है,
उसका संपूर्ण वर्ष उसी भाव में बीतता है।

‘महाभारत‘ में पितामह भीष्म महाराज युधिष्ठिर से कहते हैं-

यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां युधिष्ठिर।
हर्षदैन्यादिरूपेण तस्य वर्षं प्रयाति वै।।


हे युधिष्ठिर ! आज नूतन वर्ष के प्रथम दिन जो मनुष्य हर्ष में रहता है
उसका पूरा वर्ष हर्ष में जाता है और जो शोक में रहता है,
उसका पूरा वर्ष शोक में ही व्यतीत होता है।‘


अतः वर्ष का प्रथम दिन हर्ष में बीते, ऐसा प्रयत्न करें।
वर्ष का प्रथम दिन दीनता-हीनता अथवा पाप-ताप में न बीते
वरन् शुभ चिंतन में, सत्कर्मों में प्रसन्नता में बीते ऐसा यत्न करें।

सर्वश्रेष्ठ तो यह है कि वर्ष का प्रथम दिन परमात्म-चिंतन,
परमात्म-ज्ञान और परमात्म-शांति में बीते ताकि पूरा वर्ष वैसा ही बीते।

इसलिए दीपावली की रात्रि को वैसा ही चिंतन करते-करते सोना ताकि नूतन वर्ष की सुबह का पहला क्षण भी वैसा ही हो। दूसरा, तीसरा, चौथा… क्षण भी वैसा ही हो। वर्ष का प्रथम दिन इस प्रकार से आरंभ करना कि पूरा वर्ष भगवन्नाम-जप, भगवान के ध्यान, भगवान के चिंतन में बीते….


नूतन वर्ष के दिन अपने जीवन में एक ऊँचा दृष्टिबिंदु होना अत्यंत आवश्यक है।
जीवन की ऊँचाइयाँ मिलती हैं –
दुर्गुणों को हटाने और सदगुणों को बढ़ाने से लेकिन सदगुणों की भी एक सीमा है।

सदगुणी स्वर्ग तक जा सकता है,
दुर्गुणी नरक तक जा सकता है।
मिश्रितवाला मनुष्य-जन्म लेकर सुख-दुःख,पाप-पुण्य की खिचड़ी खाता है।

दुर्गुणों से बचने के लिए सदगुण अच्छे हैं,
लेकिन मैं सदगुणी हूँ इस बेवकूफी का भी त्याग करना पड़ता है।

श्रीकृष्ण सबसे ऊँची बात बताते हैं, सबसे ऊँची निगाह देते हैं।

श्रीकृष्ण कहते हैं-

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि कांक्षति।।

‘हे अर्जुन!जो पुरुष सत्त्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को और रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को
तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह को भी न तो प्रवृत्त होने पर उनसे द्वेष करता है

और न निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है (वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है)।‘(गीताः 14.22)