bapu


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मंगलवार, 23 नवंबर 2010

किताबों से रटकर जो कही जाये, वो 'प्राथना' नहीं,

होंठ हों खामोश और आँखें बहती रहें ।




'प्रार्थना' है वाही सही, जो मेरे 'बापू'' को अच्छी लगे ।



'प्रार्थना' शब्दों का जाल नहीं, ह्रदय का उदगार है ।



अपने प्रभु को मनाने का अपना-अपना अंदाज है ।



आँखें कभी थके नहीं, प्रभु के दीदार से।



साँसें जब तक रुके नहीं, होती रहे बातें तब तक प्यार से ।



हम उन्हें देखते रहें,और उनके चरणों को अश्रु से धोते रहें ।



कुछ कहने को होंठ खुले नहीं,



पर उनको सुनाने में बके न कुछ कभी रहें ।



जहाँ रहें जैसे रहें, उनके पास होने का आभास रहें ।



किताबों से रटकर जो कही जाये, वो 'प्राथना' नहीं,



उक्त भावों को संजोने को हम 'प्राथना' कहें।

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