होंठ हों खामोश और आँखें बहती रहें ।
'प्रार्थना' है वाही सही, जो मेरे 'बापू'' को अच्छी लगे ।
'प्रार्थना' शब्दों का जाल नहीं, ह्रदय का उदगार है ।
अपने प्रभु को मनाने का अपना-अपना अंदाज है ।
आँखें कभी थके नहीं, प्रभु के दीदार से।
साँसें जब तक रुके नहीं, होती रहे बातें तब तक प्यार से ।
हम उन्हें देखते रहें,और उनके चरणों को अश्रु से धोते रहें ।
कुछ कहने को होंठ खुले नहीं,
पर उनको सुनाने में बके न कुछ कभी रहें ।
जहाँ रहें जैसे रहें, उनके पास होने का आभास रहें ।
किताबों से रटकर जो कही जाये, वो 'प्राथना' नहीं,
उक्त भावों को संजोने को हम 'प्राथना' कहें।
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